“शिवम की आँखें कमरे की दीवारों के चक्कर लगा रही थीं। उसका चेहरा शर्म से लाल हुए जा रहा था। कमरे में पसरे सन्नाटे के शोर ने उसके जीवन में भूचाल ला दिया था। दीवार पर टंगी घड़ी की सुईयां उसके कानों को चुभ रही थीं, शायद चीख रही थीं कि समय बीत रहा है।” ऐसा इसलिए क्योंकि कक्षा आठवीं के छात्र शिवम को यह नहीं पता था कि अगर वह उसको दिए 75 रुपयों में से 39 रुपये खर्च कर दे, तो उसके पास कितना बचेगा? 14 साल का शिवम उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के एक सरकारी स्कूल में पढ़ता है।
शिवम कक्षा आठवीं का एकलौता ऐसा छात्र नहीं है जिसे गणित के सवाल तंग करते हैं। हमारे देश के 14-18 साल के हर 10 में से 8 बच्चों को “घटाना” नहीं आता है, तो वहीं 10 में से 7 बच्चे कक्षा 4 के स्तर के “भाग” के सवालों को हल नहीं कर पाते हैं।
दरअसल, हाल ही में ‘प्रथम’ नामक एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ने भारत में शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसका शीर्षक है- “शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट- ‘बियॉन्ड बेसिक्स’, 2023”। इस रिपोर्ट में देश में बच्चों के स्कूलों में नामांकन से लेकर उनके द्वारा तरह-तरह के सवालों को हल कर पाने की क्षमता के बारे में विस्तृत रुप से जानकारी दी गई है और साथ ही इसमें डिजिटल भारत की पहुँच के विषय पर भी महत्वपूर्ण तथ्य दिए गए हैं।
रिपोर्ट के पहले भाग के मुताबिक, भारत में 14-18 साल तक की उम्र के हर 100 में से 87 बच्चों का नाम किसी ना किसी शैक्षणिक संस्थान में दर्ज है। इन आंकड़ों को दिखाकर सरकारें भले ही अपनी पीठ थपथपा लें, लेकिन इसी आंकडे को टटोलने पर यह पता चलता है कि भले ही शिवम की उम्र के हर 100 में से 96 बच्चे स्कूल जाते हैं, लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे स्कूलों के बेंच खाली होने लगते हैं। जैसे ही कोई युवा 18 साल का हो जाता है, उसे अपनी 100 सीटों वाली कक्षा के 33 सीटें खाली दिखाई देने लगती हैं।
किताबों के जाल में बच्चे इस कदर फंस गए हैं कि व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसे कंप्यूटर की ट्रेनिंग, सिलाई के कोर्सज आदि में नामांकन का स्तर किसी खानापूर्ति सा लगता है या उससे भी कम। हाल यह है कि भारत में हर 100 में से केवल 5 युवा ही किसी प्रकार का व्यावसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं।
रिपोर्ट में बताया गया है कि 14-18 साल के बच्चे कक्षा 2 के स्तर की हिंदी पढ़ने में भी नाकामायब हैं। भारत के हर 100 में से 27 बच्चों को “अमन के पिताजी दुकान चलाते थे, दिन भर सब ठीक रहता था” तक पढ़ने में कठिनाई आती है। अंग्रेजी के लिए जब यह सर्वे किया गया तो हालत और पतली निकली। मारे देश का हर 2 में से बच्चा कत्रा 3 के स्तर की अंग्रेजी नहीं पढ़ पाता है। दसवीं और उससे निचली कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों की तुलना में स्नातक की श्रेणी वाले छात्र ज्यादा बेहतर कर रहे हैं लेकिन चिंता की बात यह है कि स्नातक के स्तर वाले हर 10 में से 2 बच्चे अभी भी ऐसे हैं जो प्राथमिक स्तर की अंग्रेजी नहीं पढ़ पाते हैं।
आर्यभट्ट और रामानुजन की धरती वाले देश भारत में 2023 में शिक्षा का हाल यह है कि बच्चे 18 साल के हो जा रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक सही से गुणा-भाग करने नहीं आता है। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि जब युवाओं से कहा गया कि वो 994 को 8 से और 863 को 7 से भाग देकर सही उत्तर बताएं तो उनमें से केवल 43.3 प्रतिशत विद्यार्थियों ने इसका सही जवाब दिया। तीसरी कक्षा के बच्चों के स्तर के “घटाना” के सवाल को जब उनके सामने रखा गया तो उनके पसीने छूट गए। केवल 21 प्रतिशत बच्चों ने सही-सही बताया कि 66 में से 28 और 42 में से 17 को घटाने पर कितना बचेगा । गलत उत्तर देने में लड़कों और लड़कियों की हिस्सेदारी बराबर रही। स्थिति तो यह है बच्चे 11 से 99 तक की संख्याओं की पहचान तक नहीं कर पा रहे हैं।
शिवम से जब जवाब ना दे पाने का कारण पूछा गया तो उसने बताया कि वो पढ़ना चाहता है लेकिन मास्टर जी कोई चीज दूसरी बार पूछने पर डांट देते हैं और वो डर के मारे दोबारा नहीं पूछता है। यही बात जब उसके अध्यापक आशीष यादव से पूछी गई, तो उनका जवाब शिवम के तर्कों के विपरीत था। आशीष के मुताबिक, बच्चे कक्षा में ध्यान नहीं देते हैं, जरा-सा डांटने पर रोने लगते हैं और फिर उनके घरवाले शिकायत करते हैं। दरअसल, इनका ध्यान हमेशा शरारत करने और कक्षा से भाग कर खेल-खेलने में ज्यादा लगता है।
भले ही कारण जो भी हो, लेकिन इतनी कम उम्र में जब बच्चों का ध्यान पढ़ाई से दूर जाने लगता है, तो इसका सीधा प्रभाव उनके भविष्य पर पड़ने लगता है। शिवम की ही कक्षा में बैठी एक लड़की, जिसका नाम निशा है, से जब पूछा गया कि उसे बड़ी होकर क्या बनना है, तो उसने बताया कि इस बारे में उसने कुछ सोचा नहीं है लेकिन उसे स्कूल आना पसंद है। ऐसा इसलिए क्योंकि स्कूल आने पर उसे घर के कामों से कुछ देर के लिए फुर्सत मिल जाती है।
देश में 14-18 साल की उम्र के दसवीं या उससे निचली कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों में 59 प्रतिशत ऐसे हैं जो स्नातक और परास्नातक की पढ़ाई करना चाहते हैं, तो वहीं इसी आयुवर्ग में कक्षा 11वीं या 12वीं में पढ़ने वाले बच्चों में 71.6 प्रतिशत स्नातक और परास्नातक स्तर तक पढ़ना चाहते हैं।
किताबों के सवालों से इतर जब रोजमर्रा के जीवन से जुड़े “जोड़-भाग” के सवाल उनसे पूछे गए, तो सही तस्वीर सामने निकल कर आई। तस्वीर यह कि इनमें भी हालत बुरी ही है। रिपोर्ट के दूसरे भाग में विस्तार से बताया गया है कि जब उनसे पूछा गया कि अगर कोई व्यक्ति रात को साढ़े आठ बजे सोता है और सुबह साढ़े चार बजे उठ जाता है, तो वह कितने घंटों तक सोता है? इसका जवाब असंतोषजनक की श्रेणी में आता है क्योंकि यहां भी आधे से भी कम बच्चे को इसका सही जवाब पता था।
इसके बाद जब एक स्केल पर किसी पेंसिल को रख कर उसकी लंबाई के बारे में सवाल किया गया, तो हमारे देश के युवा बंगले झांकने लगे। 100 में से केवल 39 को ही पता था कि उत्तर क्या होगा, लड़कों के मुकाबले लड़कियों की हालत चिंतित करती है, क्योंकि इसी सवाल को हल करने में 10 में 7 लड़कियां चूक गईं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ दसवीं या उससे निचले स्तर के बच्चे ही फंस रहे हैं, यहां तो स्नातक वाले भी नहीं बता पा रहे कि स्केल पर पेंसिल की लंबाई क्या है। स्नातक के स्तर के 43 फीसदी युवाओं को इसका जवाब नहीं मालूम है।
भारत सरकार पिछले कुछ वर्षों से लगातार डिजिटल इंडिया को बढ़ावा दे रही है। देश की 14-18 साल की आबादी तक इसकी पहुंच कितनी है, यह भी इसी रिपोर्ट के तीसरे भाग में बताया गया है। 14-18 साल की उम्र के 90 प्रतिशत बच्चों के घर में स्मार्टफोन मौजूद है, जो डिजिटल भारत को मांपने की पहली कसौटी है। हालांकि, देश में 14-18 साल के बच्चों में 31.1 फीसदी के पास अपना खुद का स्मार्टफोन है। यहां पर हमें लड़कों और लड़कियों में काफी ज्यादा अंतर देखने को मिलता है। एक ओर जहां हर 10 में से 4 लड़कों के पास अपना फोन है, तो वहीं हर 10 में से केवल 2 लड़कियों के पास खुद का फोन मौजूद है। स्मार्टफोन से पढ़ाई का नया दौर चल पड़ा है। करीब 52 फीसदी बच्चे फोन से या तो पढ़ाई से संबंधित वीडियोज को देखते हैं, या करेंट अफेयर्स से संबंधित सवालों के जवाब खोजते हैं। हालांकि अभी भी ईमेल आईडी के मामले में आंकड़े संतोषजनक नहीं है। हर 10 में से 5 लड़कों और 3 लड़कियों के पास ही ईमेल आईडी है। सोशल मीडिया इस्तेमाल करने में आंकड़ों के हिसाब से 90 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो इसका नियमित तौर पर उपयोग करते हैं।
इन सब से अलग जब बच्चों से पूछा गया कि वो किस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं, तो सबसे ज्यादा प्रतिशत बच्चों के पास जवाब ही नहीं था। करीब 21 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जिन्होंने अभी नहीं सोचा है कि वो बड़े होकर किस दिशा में अपना करियर बनाना चाहते हैं। लड़कों में पुलिस और सेना में नौकरी की चाह ज्यादा है। हर 100 में 27 लड़के या तो पुलिस की नौकरी में जाना चाहते हैं या फिर सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करना चाहते हैं। हमारे देश की लड़कियां इस मामले में अलग सोच रखती हैं 30.8 प्रतिशत लड़कियां डॉक्टर या अध्यापिका बनना चाहती हैं। ये आंकड़ें अपने आप में एक कहानी बयां करते हैं कि एक ओर जहां लड़के समाज के दायरों को पहले ही तोड़ चुके हैं और अब वह उन नौकरियों में जाना चाहते हैं जो उन्हें पैसों से बढ़कर इज्जत दिलाएगी, तो वहीं दूसरी ओर लड़कियां अभी पितृसत्तातमक समाज की बेड़ियों से निकल रही हैं और एक अध्यापिका और डॉक्टर के रुप में खुद को समाज में एक स्तर ऊपर उठाना चाहती हैं।
शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर यह सर्वे बेहद महत्वपूर्ण है और कई नए आयामों के संबंध में जरुरी जानकारियां देता है, जिससे शिक्षा के क्षेत्र में नई बहसों को बल मिलेगा और देश की शिक्षा प्रणाली और दुरुस्त होगी।
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