खाने पर कम खर्च कर रहे हैं देश के लोग

एक जमाना हुआ करता था, जब देश के लोगों के खानपान में दूध, दही और छाछ शान से अपनी जगह पाते थे। अब उनकी जगह कोल्ड-ड्रिंक्स ने ले ली है। पहले जब लोगों को प्यास लगती थी, तो घर में बनी गुड़ की भेलियां उनका भरपूर साथ देती थी। लेकिन अब वह साथी बदल चुका है, उनकी जगह अब पैकेट्स में बिकने वाले बिस्कुट्स ने ले ली है।

अगली बार आप जब पास के किसी कोल्ड-ड्रिंक की दुकान पर जाएं,तो वहां लगी भीड़ को देखकर मत चौंकिएगा। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के लोग अपने महीने के खर्च का 10 फीसदी हिस्सा इन कोल्ड-ड्रिंक्स, बिस्किट्स और प्रोसेस्ड फूड्स की खरीदने में लगा रहे हैं, तो वहीं दूसरी ओर अनाज पर लोगों का खर्च घटा है।

ये आंकड़ें हाल ही में आई रिपोर्ट ‘पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण- 2022-23’ के हैं। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MOSPI) और राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) द्वारा जारी यह रिपोर्ट देश के लोगों के एक महीने के औसत खर्च का ब्योरा देती है। यह रिपोर्ट यह जानने का प्रयास करती है कि भारत के लोग औसत रुप में एक महीने में न सिर्फ कितना खर्च करते हैं, बल्कि किन-किन वस्तुओं पर खर्च करते हैं।

NSSO ने 1950 से लेकर 1973 तक इस सर्वेक्षण को साल-दर-साल किया,लेकिन 1973 से इसे हर पांच साल में एक बार करने का फैसला लिया गया।

रिपोर्ट में सबसे पहले यह बताया गया है कि 2022-23 में ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय का औसत 3,773 रुपये रहा, तो वहीं शहरी इलाकों में यह औसत 6,459 रुपये रहा। इसका सीधा मतलब यह रहा कि गांव के एक व्यक्ति ने एक दिन में लगभग 125 रुपये खर्च किए, तो वहीं एक शहरी व्यक्ति का दैनिक खर्च 215 रुपये रहा।

ग्रामीण और शहरी व्यक्तियों के मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय में अंतर में लगातार कमी आई है। 2009-10 में गांव के एक व्यक्ति का मासिक खर्च 1054 रुपये था और शहर के आदमी का 1984 रुपये। दोनों में 88.2 फीसदी का अंतर था जो 2022-23 में घटकर 71.2 फीसदी पर आ गया है।

भले ही मोटे तौर पर देखने में अंतर घटा हो, लेकिन देश के अमीरों और गरीबों के खर्च में जमीन- आसमान का अंतर है। देश की निचली 5 फीसदी जनसंख्या की बात करें तो ग्रामीण इलाकों में एक व्यक्ति ने महीने में औसत रुप से 1373 रुपये (प्रतिदिन 45 रुपये) खर्च किए, तो शहरी इलाकों में यह आंकड़ा 2,001 रुपये (प्रतिदिन 66 रुपये) रहा।

दूसरी ओर देश की टॉप 5 फीसदी जनसंख्या ने जमकर खर्च किया। इस श्रेणी में गांव के व्यक्ति ने औसत रुप से एक महीने में 10,501 रुपये (प्रतिदिन 350 रुपये) खर्च किए, तो वहीं शहरी लोगों ने 20,824 रुपये (प्रतिदिन 694 रुपये) खर्च किए। यह एक बड़ा अंतर है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानता को दर्शाता है।

बात करें कि भारत के लोग आखिर अपने महीने के खर्च में किन चीजों पर पैसा लगाते हैं, तो आंकड़े दिलचस्प हैं। 2022-23 में गांव के व्यक्ति ने एक महीने में जो 3,773 रुपये खर्च किए, उनमें से 46 फीसदी खर्च खाने की वस्तुओं पर किए, और बाकी के 54 फीसदी गैर-खाद्य पदार्थों पर। शहरी इलाके के व्यक्ति ने महीने के औसत खर्च में 39 फीसदी पैसा खाने की चीजें खरीदने पर लगाया और बाकी गैर-खाद्य वस्तुओं पर।

खाने पर खर्च में कमी देखने को मिली है। 1999 में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग हर 100 रुपये में से करीब 60 रुपये खाने पर खर्च करते थे, जो अब घटकर 46 रुपये हो गया है, तो वहीं शहरी क्षेत्रों के लोग 1999 में खाने पर 48 फीसदी पैसा खर्च करते थे। अब वो लोग भी सिर्फ 39 फीसदी पैसा खर्च करने लगे हैं।

इसी के साथ एक आंकड़ा और है जो अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण है। अनाज पर खर्च भी घटा है। गांव के लोग आज से 25 साल पहले हर सौ रुपये में 22 रुपये अनाज पर खर्च करते थे, जो 2009 में घटकर 13.77 रुपये हो गया। 2022-23 में यह आंकड़ा महज 4.91 रुपये है। शहरी क्षेत्रों में भी इसी तरह की कमी देखने को मिली है। 1999 में शहरी क्षेत्र के लोग अपने मासिक खर्च में हर 100 रुपये में से 12 रुपये अनाज की खरीद पर लगाते थे. तो वहीं 2009 में 8 रुपये और अब 2022-23 में महज 3 रुपये खर्च करते हैं।

अर्थव्यवस्था के लिए यह अच्छे संकेत हैं। जब समाज में लोगों के पास कम पैसा होता है, तो वह अपने पैसे का अधिकतर हिस्सा मूलभूत जरुरतों को पूरा करने में लगाते हैं,जैसे कि खाने पर खर्च। माना जाता है कि जैसे-जैसे लोगों की आय बढ़ती है, वैसे- वैसे लोग सबसे पहले अनाज से उपर उठते हैं और बाकी वस्तुओं, जैसे पैकेज्ड फूड, पेय पदार्थों पर खर्च करने लगते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अब उनके पास ज्यादा विकल्प मौजूद होते हैं। अनाज से उपर उठने के बाद वो अब खाने से इतर अन्य चीजों पर खर्च करते हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ और कपड़े आदि शामिल हैं। भारतीय अर्थव्यस्था में यह रुझान इस ओर इशारा करता है कि अब देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा है, जो अपने खाने की जरुरतों से उपर उठकर अन्य वस्तुओं को खरीदने में भी सक्षम है।

अनाज के अलावा अगर अन्य चीजों की बात करें, तो दूध और दूध से बने उत्पादों पर खर्च अब भी समान है। 1999 में गांव के लोग एक महीने में अपने खर्च का 8.75 फीसदी पैसा दूध और उससे बने उत्पादों पर खर्च करते थे, जो अब भी 8.33 पर बना हुआ है। शहरी इलाकों में यही आंकड़ा जो 1999 में 8.68 फीसदी था, वो अब घटकर 7.22 फीसदी पर आ गया है। इस रिपोर्ट में जो पहलू सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करता है, वो है कोल्ड-ड्रिंक्स, चिप्स, जैसे पेय पदार्थों, प्रोसेस्ड फूड, और पैकेज्ड आइटम्स की ओर लोगों का झुकाव। 1999 में जो गांव के लोग इन वस्तुओं पर हर 100 रुपये में से सिर्फ 4 रुपये खर्च करते थे, वो इनपर दुगने से भी अधिक यानी 9.62 रुपये खर्च करते हैं। शहर के लोग भी इसमें पीछे नहीं है। शहरी क्षेत्रों में 1999 में कुल मासिक खर्च में इनकी हिस्सेदारी 6.35 फीसदी थी, जो अब बढ़कर 10.64 फीसदी हो गई है।

खाने से आगे बढ़ने पर पता चलता है कि लोगों का कन्वेयंस पर खर्च बढ़ा है। कन्वेयंस मतलब एक जगह से दूसरे जगह पर जाने के लिए वाहनों पर खर्च। 1999 में ग्रामीण इलाकों के लोग हर 100 रुपये में से करीब 3 रुपये कन्वेयंस पर खर्च करते थे, तो वहीं 2022-23 में 7.5 रुपये खर्च करते हैं। शहरी इलाकों में भी ये खर्च बढ़ा है। एक ओर जहां 2009 में शहर का एख व्यक्ति औसत तौर पर अपने कुल मासिक खर्च का 5.63 फीसदी हिस्सा कन्वेयंस पर लगाता था, तो वहीं दूसरी ओर 2022-23 में यह आंकड़ा 8.59 फीसदी है। इसमें बढ़ोतरी एक बड़ा कारण पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी है। पिछले कुछ सालों में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिला है, जिसका सीधा असर लोगों के कन्वेयंस खर्च पर पड़ा है।

इस रिपोर्ट में एक नई चीज भी शामिल की गई है। अभी तक जो आंकड़ें सामने आते रहे हैं, उनमें सरकार द्वारा प्राप्त सुविधाओं का कोई हिसाब नहीं मिल पाता था, लेकिन इस रिपोर्ट में सरकार की तमाम सामाजिक कल्याण योजनाएं जिनके द्वारा आबादी के बड़े हिस्से को मुफ्त में अनाज सहित कई अन्य सुविधाएं मिलती हैं,उनका भी हिसाब किया गया है। रिपोर्ट में उन फ्री की वस्तुओं की अनुमानित कीमतों को भी लोगों के खर्चों में शामिल किया गया है। इन सभी को जोड़ने के बाद जो प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग व्यय है, वो पहले जारी आकड़ों के मुकाबले अधिक है। नए आंकडें बताते हैं कि ग्रामीण व्यक्तियों का मासिक खर्च 3,860 रुपये है, तो वहीं शहरी इलाकों में ये 6,521 रुपये है।

सामाज कल्याण योजनाओं के फायदों की बात करें तो कुछ दिलचस्प आंकड़ें सामने आते हैं। अगर देश की निचली 5 प्रतिशत जनसंख्या की बात करें तो, नए आकंडों के हिसाब से इस श्रेणी में गांव के लोगों का मासिक खर्च 1441 रुपये निकलकर आता है, जो बिना इन योजनाओं के लाभ को जोड़े 1373 रुपये आता था। दोनों में 68 रुपये का अंतर है। इसी श्रेणी में शहरी इलाकों में प्रति व्यक्ति मासिक उपभोग खर्च 2087 रुपये है, जो पिछले आंकड़ों से 86 रुपये ज्यादा है।

वहीं, देश की टॉप 5 प्रतिशत जनसंख्या की बात करें, तो इन योजनाओं के लाभों को जोड़ने पर ग्रामीण क्षेत्रों का प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 10,581 रुपये है। पहले ये 10,501 रुपये था। शहरी क्षेत्रों में ये अब 20,846 रुपये पर है, जो बिना लाभ को जोड़े 20,824 रुपये था।

इसका मतलब यह कि सरकारी योजनाओं का सबसे अधिक लाभ निचली 5 फीसदी आबादी को मिला है और उनमें खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को जिनके खर्च में 4.95 फीसदी की बढ़ोतरी देखने को मिली है, तो इसी श्रेणी के शहरी क्षेत्रों के लोगों के खर्च में 4.29 फीसदी का अतंर आया है। बात करें देश के टॉप 5 प्रतिशत जनसंख्या की तो उनके खर्च में मामूली अतंर आया है। इस श्रेणी के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों के खर्च में 0.76 फीसदी की बढ़ोतरी देखने को मिली है, तो वहीं शहरी इलाकों में रहने वाले लोगों के खर्च मात्र 0.1 से प्रभावित हुए हैं।

यह अच्छे संकेत हैं कि सरकारी योजनाओं का सबसे अधिक लाभ उन्हें ही मिल रहा है, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरुरत है।

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Kishan Singh

खोज में हूं कि मैं कितना कम जानता हूं ।